बिलासपुर छत्तीसगढ़ की सियासत के सबसे बड़े जग्गी हत्याकांड के सभी 25 आरोपियों को हाईकोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा बरकरार रखने का फैसला किया है। इस मामले में रायपुर के महापाैर एजाज ढे़बर के भाई याहया ढेबर को अदालत ने मुख्य आरोपी माना है। तत्कालीन पुलिस अधिकारी अमरीक सिंह गिल और आरके त्रिवेदी, वीके पांडेय भी आरोपियों में शामिल हैं। पूर्ववर्ती जोगी सरकार के कार्यकाल के अंतिम दिनों में एनसीपी नेता रामअवतार जग्गी उर्फ तारू भैया की हत्या रायपुर में माैदहापारा के पास कर दी गई थी। यह मामला राजनीतिक प्रतिद्वंदिता का था। उस समय एनसीपी के नेता रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल के करीबी रहे और पार्टी के चुनाव संचालक तारू जग्गी को राजनीतिक कारणों से माैत के घाट उतारा गया था। यह हत्याकांड छत्तीसगढ़ के राजनीतिक इतिहास का एक जघन्य अपराध माना गया था। पूर्व में मामले की सुनवाई रायपुर के सीबीआई कोर्ट में हुई थी, इस अदालत ने भी एक आरोपी को बरी करते हुए अन्य को सजा सुनाई थी। लेकिन हाल के दिनों में मामले की सुनवाई बिलासपुर हाईकोर्ट में की जा रही थी।2003 में घटित इस हत्याकांड में तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बेटे अमित जोगी भी आरोपी थी, लेकिन अदालत ने उन्हें बरी कर दिया था। मामला सुप्रीम कोर्ट भी गया था। वहां से सुनवाई के लिए मामला बिलासपुर हाईकोर्ट में आया था।बताया गया है कि इस मामले में अन्य आरोपियों अभय गोयल, फिरोज सिद्दीकी, अवनीश सिंह लल्लन, चिमन सिंह, सुनील गुप्ता,राजू भदाैरिया, अनिल पचाैरी, रविंद्र सिंह, रवि सिंह, लल्ला भदाैरिया, धर्मेंद्र, सत्येंद्र सिंह, शिवेंद्र सिंह परिहार, विनोद सिंह राठाैर, संजय सिंह कुशवाहा, विक्रम शर्मा, जसवंत, विश्वनाथ राजभर सहित अन्य आऱोपी थे। बताया गया है कि मामले में अमित जोगी की याचिका पर स्टे है, इनके संबंध में स्थिति फिलहाल साफ नहीं है। अमित जोगी को सीबीआई कोर्ट ने पूर्व में सुबूतो के आभाव में बरी किया था।
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रायपुर महापौर एजाज ढ़ेबर का भाई अनवर, शराब घोटाले में फिर शिकंजे में, साथ में अरविंद भी
रायपुर छत्तीसगढ़ में पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में दो हजार करोड़ रुपयों से अधिक के शराब घोटाले में ईओडब्ल्यू-एसीबी की टीम ने एक बार अनवर ढेबर को फिर हिरासत में लिया है। यह आरोपी रायपुर के मेयर एजाज ढेबर का भाई है। इसी मामले में ईओडब्लू तथा एसीबी की टीम ने अरविंद सिंह को जमानत मिलने के बाद बुधवार रात पुन: गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश कर पूछताछ के लिए आठ अप्रैल तक रिमांड पर लिया है। बताया गया है कि गुरुवार को अनवर ढेबर को ईओडब्ल्यू ने हिरासत में लेकर ईओडब्ल्यू के अफसर शुक्रवार को कोर्ट में पेश कर रिमांड देने की मांग कर सकते हैं। गौरतलब है कि ईडी के प्रतिवेदन पर ईओडब्ल्यू ने दो हजार करोड़ रुपए के शराब घोटाला मामले में एफआईआर दर्ज कर मामले की जांच शुरू की है। मामले की जांच शुरू करने के बाद ईओडब्लू के अफसर शराब घोटाला मामले में जेल में बंद आरोपियों के अलावा शराब कारोबार तथा परिवहन से जुड़े लोगों को नोटिस देकर कई दफा पूछताछ करने तलब कर चुकी है। अरविंद सिंह तथा अनवर ढेबर के खिलाफ अफसरों से मिलकर नकली होलोग्राम के माध्यम से बड़े पैमाने पर नकली शराब बेचने का आरोप है। इसी सिलसिले में पूछताछ करने ईओडब्ल्यू के अफसरों ने दोनों को पूछताछ करने गिरफ्तार किया है
,रायपुर छत्तीसगढ़ की सामाजिक एकता,बंधुत्व, हिंदू मुस्लिम भाईचारा ,सद्भाव पसंद नही आ रहा है
कुछ तथाकथित आसामाजिक तत्व वा संगठन को ,रायपुर छत्तीसगढ़ की सामाजिक एकता,बंधुत्व, हिंदू मुस्लिम भाईचारा ,सद्भाव पसंद नही आ रहा जिसे खंडित करने के उद्देश वा सोंची समझी साजिश के तहत चुनाव आचार संहिता होने पर A.D.M की अनुमति से रैली के रूप में 21 मार्च 2024 शाम को पुलिस सुरक्षा में पवित्र कुरान वा मुस्लिम के खिलाफ “आतंवाद की क्या पहचान सर में टोपी ,हाथ में कुरान “गोली मारो सालो को आपत्तिजनक नारेलगा उपद्रव कर मदीना मस्जिद वा वहां उपस्थित लोगों पर पथराव किया जिससे लोगों को चोटे भी आईं ऐसे असामाजिक तत्वों और उनकी सुरक्षा वा रैली की अनुमति प्रदान करने वाले अधिकारियों पर उचित कार्यवाही हेतु संबंधित थाने और निर्वाचन आयोग में शिकायत दर्ज कराई गई। कार्यवाही नही होने पर सामाजिक आंदोलन ,वा जेल भरो समाज द्वारा किया जायेगा।
क्या रामलीला मैदान अपना 1977 का इतिहास दोहराएगा?*
*क्या रामलीला मैदान अपना 1977 का इतिहास दोहराएगा?**(आलेख : राजेंद्र शर्मा)*इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि शराब घोटाले के आरोपों में ईडी द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सर्वोच्च नेता अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी ठीक उस समय हुई है, जब चुनावी बांड महाघोटाले की परतें बाकायदा उधड़नी शुरू हो चुकी हैं। इसी का नतीजा है कि आम आदमी पार्टी की इस दलील का लोगों के बीच काफी हद तक असर हो रहा है कि कथित रूप से 100 करोड़ रूपये के दिल्ली के शराब घोटाले में अगर कोई ”मनी ट्रेल” है भी तो, वह तो सीधे भाजपा तक जाती है, जिसके सबूत बांड घोटाले से संबंधित रहस्योद्घाटनों के हिस्से के तौर पर सामने आ चुके हैं।याद रहे कि जिस स्थापित दवा कारोबारी, शरतचंद्र रेड्डी की उक्त घोटाले के मुख्य अभियुक्त के रूप में गिरफ्तारी के बाद, वादा माफ गवाह बनाकर रिहाई के बाद, मुख्यत: उसकी गवाही की ही बिनाह पर मनीष सिसोदिया तथा संजय सिंह के बाद, अब खुद अरविंद केजरीवाल की भी गिरफ्तारी की जा चुकी है, उससे जुड़ी कंपनियों ने इसी दौरान, बांड के जरिए भाजपा को पूरे 55 करोड़ रूपये का चंदा दिया था। इसमें 5 करोड़ रूपये का चंदा तो रेड्डी की जमानत पर रिहाई के फौरन बाद दिया गया था और बाकी 50 करोड़ का चंदा अलग-अलग किस्तों में बाद में दिया गया। अगर वाकई 100 करोड़ रूपये का घोटाला हुआ था, जैसाकि ईडी का आरोप है, तो इसे बेशक घोटाले की अवैध कमाई के प्रवाह की मुख्य धारा माना जाना चाहिए। हां! अगर कोई यह दलील देने लगे तो बात दूसरी है कि भाजपा को बांड के जरिए दिया गया 55 करोड रूपये तो ईडी द्वारा इस दवा व्यापारी से केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के लिए, सीधी-साधी हफ्ता वसूली या एक्सटॉर्शन का मामला है!इस पूरे मामले से इसका कुछ अंदाजा तो लग ही सकता है कि चुनावी बांड घोटाले का भूत, भाजपा की सारी कोशिशों के बावजूद, आसानी से उसका पीछा छोड़ने वाला नहीं है। यह घोटाला इतना बड़ा और इतनी अवैधताओं को समेटे हुए है कि कम-से-कम इस आम चुनाव तक तो, इसकी नयी-नयी परतें खुलती ही रहेंगी। इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि इस मामले में मोदी सरकार और सत्ताधारी पार्टी के बचाव के लिए, संघ-भाजपा की ओर से अमित शाह तथा निर्मला सीतारमण से लेकर, खुद आरएसएस के महासचिव, होसबले को उतारे जाने के बावजूद, घोटाले से लेकर हफ्तावसूली तक के आरोपों को जवाब देना तो दूर रहा, उन्हें भोंथरा तक नहीं किया जा सका है। और तो और, संघ-भाजपा का इसका प्रचार भी खास काम नहीं आया है कि बांड के जरिए अगर अवैध तरीके से पैसा इकठ्ठा किया गया है, तो इस तरह अकेले भाजपा ने ही पैसा थोड़े ही जुटाया है, दूसरी पार्टियों ने भी तो बांड से पैसा उठाया है और तृणमूल कांग्रेस, टीआरएस, एसआरसीपी, बीजेडी आदि क्षेत्रीय पार्टियों ने तो खासतौर पर उल्लेखनीय मात्रा में इस रास्ते से पैसा उठाया है।प्रचार की सारी ताकत लगाए जाने के बावजूद, इस दलील को एक तो इस तथ्य ने बेअसर कर दिया है कि दूसरी तमाम पार्टियों को मिलकर बांड से जितना पैसा मिला था, उससे ज्यादा पैसा अकेले भाजपा ने बटोरा था। दूसरे कुछ क्षेत्रीय सत्ताधारी पार्टियां स्थानीय रूप से कुछ बड़े उद्योगपतियों को उपकृत करने के बदले में उनसे बांड से चंदा लेने की स्थिति में रही भी हों, तब भी, केवल केंद्र में सत्ता में बैठी भाजपा ही केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल कर के हफ्ता वसूली करने और इन्फास्ट्रक्चर, खनन आदि क्षेत्रों की भीमकाय कंपनियों को ठेकों, मंजूरियों आदि के जरिए उपकृत करने के बदले में चंदा बटोरने की स्थिति में थी। और इससे भी महत्वपूर्ण यह कि केंद्र में सत्ता में बैठी भाजपा ही, यह जानने की स्थिति में थी कि कौन सा उद्योगपति, उसके अलावा भी किस पार्टी को, कितना चंदा दे रहा था? इस जानकारी को हथियार बनाकर, केंद्रीय एजेंसियों के जरिए आसानी से यह सुनिश्चित किया जा सकता था कि चंदे का यह दरवाजा, सिर्फ और सिर्फ सत्तापक्ष के लिए खुला रहे, विरोधियों के लिए नहीं। कांग्रेस का चुनावी बांड से कमाई में तृणमूल कांग्रेस से भी पीछे, बहुत दूर तीसरे नंबर पर रह जाना और बांड से मिले कुल चंदे के दस फीसद से भी कम और भाजपा को मिले चंदे से चौथाई से भी कम में सिमट जाना, इसी की ओर इशारा करता है।इसीलिए संघ-भाजपा और उनका सेवादार मीडिया, ध्यान बंटाने के जरिए, इस महाघोटाले को ज्यादा से ज्यादा अनदेखा करने की ही कार्यनीति का ज्यादा सहारा ले रहे हैं। लेकिन, उनके दुर्भाग्य से इस घोटाले के संबंध में, स्वतंत्र संगठनों तथा सोशल मीडिया प्लेटफार्मों द्वारा सामने लाया जा रहा मसाला इतना विस्फोटक है कि मुख्यधारा के मीडिया के एक हिस्से को, खासतौर पर मुख्यधारा के प्रिंट मीडिया के एक हिस्से को भी, इन रहस्योद्घाटनों को जगह देनी ही पड़ रही है। मिसाल के तौर पर लीगेसी मीडिया भी पूरी तरह से इस तरह की कहानियों को कैसे अनदेखा कर सकता है कि बांड से करीब 1,000 करोड़ रूपये का चंदा देने वाली 32 दवा कंपनियों में, 7 ऐसी दवा कंपनियां भी शामिल थीं, जिनके खिलाफ घटिया दवाएं बनाने के लिए, सरकारी मशीनरी द्वारा जांचें/कार्रवाइयां की जा रही थीं! या यही कि कुख्यात सिलक्यारा टनल, जिसके बैठ जाने से, इकतालीस मजदूर कई हफ्ते तक फंसे रहे थे और इसके बावजूद उसे बनाने वाली कंपनी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गयी थी, उसने भी भाजपा को 55 करोड़ रूपये का चंदा बांड के जरिए दिया था! और यह भी कि बीसियों कंपनियों ने अपने मुनाफे से कई-कई गुना ज्यादा चंदा बांड के जरिए दिया था और इनमें एक दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां शामिल थीं, जिन्होंने अपनी स्थापना के साथ ही यानी कोई मुनाफा आने से पहले ही चंदा देना शुरू कर दिया था या जिनके सारे लक्षण शैल या खोखा कंपनियों के थे।इस सब के सामने आने से, मीडिया पर मुकम्मल नियंत्रण और अधिकतम संभव प्रचार के बल पर, गढ़ी गयी मोदी राज की ”न खाऊंगा, न खाने दूंगा” की छवि, भरभरा कर गिरनी शुरू हो गयी है। इसके स्वाभाविक परिणाम के रूप में, विपक्षी नेताओं को ”भ्रष्ट”‘ बनाकर पेश करने की संघ-भाजपा की मुहिम, भोंथरी होती जा रही है। ऐसे में और खासतौर पर चुनाव से ऐन पहले, केंद्रीय एजेंसियों के सहारे विपक्ष के खिलाफ कोई भी कार्रवाई, नरेंद्र मोदी के प्रचार के लिए उल्टी ही पड़ सकती है। केजरीवाल की गिरफ्तारी के मामले में ठीक यही होता नजर आ रहा है। इससे पहले, जनवरी की आखिरी तारीख को, ऐसे ही गढ़े हुए मामले में, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को गिरफ्तार किया गया था; तब भी संघ-भाजपा अपना मनचाहा हासिल नहीं कर पाए थे। हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के संदर्भ में जिस तरह, सरकार का वैकल्पिक नेतृत्व सामने आ गया, जिसने आसानी से बहुमत साबित कर दिया और जिस तरह हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के खिलाफ खासतौर पर झारखंड के आदिवासी गोलबंद हुए, उसने मोदी राज के मंसूबों पर कम-से-कम झारखंड के स्तर पर पानी फेर दिया। आम चुनाव के संदर्भ में इसका एक इशारा, राज्य से कांग्रेस की इकलौती सांसद को और हेमंत सोरेन की भाभी को दलबदल करा के, हाथ के हाथ लोकसभा के लिए भाजपा का टिकट दे दिया जाना है।बहरहाल, केजरीवाल की गिरफ्तारी के मामले में मोदी राज के मंसूबों की विफलता, और दूर तक जाती नजर आती है। अगर चुनाव से ठीक पहले इस तरह की कार्रवाई के पीछे यह विचार था कि केजरीवाल को जेल में डालने से, उनकी पार्टी पंगु हो जाएगी, चुनाव अभियान चलाने में असमर्थ हो जाएगी, तो साफ तौर पर यह विचार गलत साबित होने जा रहा है। दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार से लेकर, केजरीवाल की पार्टी के चुनाव प्रचार तक पर, शायद ही कोई असर पड़ता नजर आता है। उल्टे आम आदमी पार्टी कहीं लड़ाकू तेवर में नजर आती है और चुनाव प्रचार के मंच से केजरीवाल की अनुपस्थिति से जो कमी रह भी जाएगी, उससे ज्यादा की भरपाई केजरीवाल के मोदी राज के जुल्म-ज्यादती के शिकार बनाए जाने की छवि कर देने वाली है।वास्तव में इसका असर सिर्फ दिल्ली और इसके अलावा हरियाणा व पंजाब तक ही सीमित रहे, यह भी जरूरी नहीं है, हालांकि दिल्ली और हरियाणा में इंडिया गठबंधन की ओर से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच सीटों पर तालमेल हो चुका है। केजरीवाल की गिरफ्तारी पर, उनकी अपनी पार्टी ने ही नहीं, बल्कि समूचे विपक्ष ने जिस तरह से प्रतिक्रिया की है, उसमें इस गिरफ्तारी के देश भर में मोदी राज की तानाशाही के प्रतीक के रूप में देखे-पहचाने जाने की संभावनाएं नजर आती हैं। केरल, तमिलनाडु आदि समेत, देश के अनेक हिस्सों में हुई विरोध कार्रवाइयां, इसी की ओर इशारा करती हैं। 31 मार्च को बुलायी गयी रामलीला मैदान की विरोध रैली, जिसमें इंडिया गठबंधन में शामिल सभी पार्टियों के नेताओं के शामिल होने की उम्मीद की जा रही है, जिसके लिए वामपंथ तथा कांग्रेस समेत सभी पार्टियां सक्रिय रूप से गोलबंदी कर रही हैं, इसी सिलसिले को और आगे ले जाएगी।इस संदर्भ में 1977 के आम चुनाव की पूर्व-संध्या में दिल्ली के रामलीला मैदान में ही हुई विपक्ष की संयुक्त रैली की याद आना स्वाभाविक है, जिसने इमर्जेंसी के लिए जिम्मेदार श्रीमती गांधी की विदाई की पटकथा लिख दी थी। रामलीला मैदान एक बार फिर अपना यह इतिहास दोहरा पाता है या नहीं, नरेंद्र मोदी की विदाई की पटकथा लिख पाता है या नहीं, यह तो आने वाले हफ्तों और दो महीनों में पता चलेगा। लेकिन, इतना तय है कि स्थितियां उसी ओर बढ़ती नजर आती हैं। केजरीवाल की गिरफ्तारी, नरेंद्र मोदी निजाम की बढ़ती तानाशाही को तेजी से बहस के केंद्र में ला रही है। यही वह धुरी है, जहां से नरेंद्र मोदी की गाड़ी को बेपटरी किया जा सकता है। पहले, ओडिशा में बीजू जनता दल और अब पंजाब में अकाली दल का भाजपा के गठबंधन के न्यौते को ठुकरा देना, इसी दिशा में एक और इशारा लगता है।*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*
घोटाला क्या रंग नहीं दिखाएगा?**(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
घोटाला क्या रंग नहीं दिखाएगा?**(आलेख : राजेंद्र शर्मा)*क्या चुनावी बांड से संबंधित रहस्योद्घाटनों का, अगले 19 अप्रैल से शुरू होने जा रहे आम चुनाव के सिलसिले पर कोई असर नहीं पड़ेगा? कारोबारी दुनिया के कर्णधारों की राय का प्रतिनिधित्व करने वाले, बिजनस स्टेंडर्ड में प्रकाशित एक सर्वे के अनुसार तो, इस सब का चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ेगा। दस बड़ी कंपनियों के सीईओ की राय को दिखाने वाले सर्वे के हिसाब से, चुनावी चंदे के इस गड़बड़ घोटाले से न तो मतदाता प्रभावित होंगे और न ही चुनाव के नतीजों पर इसका असर पड़ेगा। वैसे यही सर्वे एक और दिलचस्प चीज भी बताता है, जो भारत में व्हाइट कारपोरेट चंदे में पारदर्शिता के स्वांग को तार-तार कर देती है। उक्त दावा करने वाले बड़ी कंपनियों के सीईओ में से, पूरे 50 फीसद ने यह स्वीकार किया था कि उनके यहां राजनीतिक चंदा देने की ‘मैनेेजिंग बोर्ड द्वारा अनुमोदित’ कोई नीति है ही नहीं। दूसरी ओर, 40 फीसदी ने ही बोर्ड द्वारा अनुमोदित ऐसी किसी नीति की मौजूदगी की बात कही, जबकि 10 फीसदी इस मामले में ‘मैं ना जानूं’ ही थे। साफ है कि भारत में शीर्ष कारपोरेट स्तर पर भी, राजनीतिक चंदे का मामला सबसे बढ़कर सत्ता-प्रतिष्ठान से, चंदे के बदले में अतिरिक्त लाभ बटोरने की जुगाड़ का ही मामला है, जिसमें बोर्ड जैसे किसी वृहत्तर निकाय द्वारा अनुमोदित किसी तरह की नीति को, मददगार के बजाय, बोझ ही समझा जाता है। इसके बजाय, ‘न खाता न बही, जम जाए सो जुगाड़ सही’ ही कारगर नीति है।चुनावी बांड के महाघोटाले का भी चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ने का यह ‘भरोसा’ सिर्फ उस कारपोरेट जगत तक ही सीमित नहीं है, जो इस घोटाले का एक सक्रिय पक्ष है। एक प्रकार से, इस घोटाले के दूसरे पक्ष यानी संघ परिवार की भी कथनियों में, कुछ ऐसा ही विश्वास दिखाई देता है। हां! इतना जरूर है कि बांड के मामले में भाजपा की संलिप्तता, बांडों के लेन-देन की सिर्फ शुरूआती जानकारियां आने के बाद से ही इतना स्पष्ट है कि संघ परिवारियों को कारपोरेटों की तरह, यह सुविधा हासिल नहीं है कि बांड से चंदा पाने वाले के सवाल पर चुप ही लगा जाते। इसलिए, उन्हें किसी न किसी तरह से भाजपा का बचाव तो करना ही था। लेकिन, यह बचाव जिस तरह के तर्कों से तथा जिस तरह से पेश किया गया है, उसे बचाव की रस्म-अदायगी ही समझा जाना चाहिए। बचाव की रस्म अदायगी पर ही यह संतुष्टि इसीलिए है कि उनके मन में यह ‘भरोसा’ है कि संघ-भाजपा द्वारा वोट बटोरे जाने पर, ऐसे मुद्दों का कोई असर नहीं पड़ने वाला है।मिसाल के तौर पर भाजपा की ओर से ‘बचाव’ के अभियान की कमान संभाली, खुद मौजूदा निजाम में नंबर-दो पर मजबूती से कायम, गृहमंत्री अमित शाह ने। इंडिया टुडे की कॉनक्लेव में चुनावी बांड के मामले में पूछे गए बहुत ही भोंथरे सवालों के जवाब में, अमित शाह ने अर्द्घ-सत्य तथा असत्य के मिश्रण से लेकर, सरासर बेतुकी दलीलों तक का सहारा लिया, जिनसे कम-से-कम कोई तर्कशील व्यक्ति तो प्रभावित होने से रहा। शाह ने अर्द्घ-सत्य बोला कि भाजपा को करीब 6,000 करोड़ रुपए बांड से मिले थे, जबकि उसे 6,986 करोड़ यानी करीब 7,000 करोड़ रुपए मिले थे। दूसरी ओर, शाह ने बांड से दिया गया कुल चंदा फुलाकर 20 हजार करोड़ रुपए बता दिया, जबकि यह आंकड़ा 13,000 करोड़ रुपए के करीब ही बनता है।इसके बाद, उन्होंने एक तरफ भाजपा और दूसरी ओर बाकी सब को करते हुए, यह झूठा दावा कर दिया कि भाजपा की तुलना में दोगुने से ज्यादा तो, दूसरी पार्टियों को मिला है। फिर भाजपा के बांड से पैसा लेने का इतना हल्ला क्यों? पहली बात तो यह कि अकेेले भाजपा को, बांड के जरिए दी गयी रकम का, आधे से जरा सा ही कम मिला है। दूसरे, शाह ने बड़ी चतुराई से यह छुपा लिया कि भाजपा के अलावा दूसरी पार्टियों को बांड से जो चंदा दिया गया है, उसमें से भी एक तिहाई से ज्यादा चंदा भाजपा की सहयोगी पार्टियों को गया है। दूसरी ओर, मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को, जो 2014 तक सत्ता में रही थी, बांड से आए चंदे का मुश्किल से 12 फीसदी मिला है।तथ्यों की इस काट-छांट के अलावा जो बहुत आसानी से पकड़ी जाने वाली थी, अमित शाह ने और ज्यादा चतुराई, एक पूरी तरह से बेतुकी दलील का सहारा लेने में दिखाई। वैसे हम यहां इसका जिक्र जरूर करना चाहेंगे कि यह दलील भी कोई शाह की मौलिक खोज नहीं थी, बल्कि संघ परिवारी व्हाट्सएप ग्रुपों में यह दलील पहले ही प्रकट हो चुकी थी। दलील यह थी कि भाजपा को अगर 6,000 करोड़ रुपए मिले भी हैं, तो उसके लोकसभा सदस्यों की ही संख्या 303 की है। बाकी सारी पार्टियों के 241 लोकसभा सदस्य ही हैं, फिर भी उन्हें 14,000 करोड़ रुपए मिले हैं। इसी प्रकार उन्होंने भाजपा की राज्य सरकारों की संख्या की भी दलील दी। और आखिर में, प्रति लोकसभा सदस्य, चुनावी बांड चंदे का हिसाब निकालकर, उन्होंने दिखा दिया कि भाजपा को प्रति लोकसभा सदस्य जितना पैसा मिला है, उससे कहीं ज्यादा पैसा तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक आदि पार्टियों और यहां तक कि कांग्रेस को भी मिला है! प्रति लोकसभा सदस्य या प्रति विधानसभा सदस्य के औसत की दलील से तो भाजपाइयों के किसी भी गुनाह को मामूली ठहराया जा सकता है, औरतों, दलितों आदि के खिलाफ अपराधों को भी!इंडिया टुडे के उसी कॉन्क्लेव के एक और सत्र में, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ईडी-सीबीआई की कार्रवाइयों से धमकाकर, चुनावी बांड के जरिए चौथ वसूली के आरोपों से, अपनी पार्टी और सरकार को बचाने की कोशिश की। इसके बावजूद कि बांड के जरिए राजनीतिक चंदा देने वाले पांच सबसे बड़े दानदाताओं में से तीन ने, केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई के निशाने पर रहते हुए चंदे दिए थे, वित्त मंत्री ने केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई और बांड खरीदे तथा दिए जाने के संबंध को नकारने की सभी संभव कोशिशेें कीं। वह यह कहने तक चली गयीं कि कोई जरूरी नहीं है कि छापे के बाद, सत्ताधारी पार्टी को ही चंदा दिया गया हो! और यह भी कि यह भी तो देखना चाहिए कि बांड देने के बाद भी, कुछ मामलों में केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई चलती रही यानी बांड दिया भी गया, तो भी उसका सरकार की कार्रवाई पर असर नहीं हुआ!बेशक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपने परिवार का बचाव करने से पीछे नहीं रहा है। आरएसएस के नये-नये पुनर्निर्वाचित सरकार्यवाह, दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि बांड व्यवस्था ‘एक प्रयोग’ थी और ‘वक्त आने पर पता चलेगा कि यह व्यवस्था कितनी फायदेमंद और प्रभावी रही’! उन्होंने यह भी कहा कि जब कोई नयी व्यवस्था आती है, तो उसका विरोध होता ही है, जैसे ईवीएम का भी विरोध हुआ। इसे प्रयोग के लिए ही छोड़ देना चाहिए। यानी संविधान पीठ के चुनावी बांड व्यवस्था को असंवैधानिक करार देकर खारिज कर देने और इसमें घूसखोरी के तमाम साक्ष्य सामने आने के बाद भी, उन्हें इसके फायदे दिखाई देना बंद नहीं हुए हैं।यह सब इसके बावजूद है कि हर गुजरने वाले दिन के साथ इसके साक्ष्य पर साक्ष्य सामने आ रहे हैं कि किस तरह केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के बाद, कंपनियों ने बांड खरीदे थे; कैसे 1000 करोड़ रुपए के बांड खरीदने वाली बड़ी दवा कंपनियों में 7 ऐसी कंपनियां भी शामिल थीं, जिनकी दवाएं मानकों पर परीक्षा में खरी नहीं उतरी थीं; कैसे ठेके मिलने के फौरन बाद बांड खरीदे गए थे; कैसे बांड खरीदने के बाद, छापे पड़े और फिर और ज्यादा बांड खरीदे गए, आदि, आदि। भाजपा राज्यसभा सदस्य, सीएम रमेश की कंपनी आरपीपीएल के 45 करोड़ रुपए के बांड खरीदने का प्रकरण, बांड के खेल को पूरी तरह से बेनकाब कर देता है। रमेश की कंपनी को, 14 जनवरी 2023 को हिमाचल प्रदेश में सुन्नी हाइड्रो पावर प्रोजैक्ट का 1098 करोड़ रुपए का इंजीनियरिंग, प्रोक्योरमेंट तथा निर्माण का ठेका मिला और उसके दो हफ्ते से भी कम में उसने 5 करोड़ रुपए का बांड खरीदा।अप्रैल के महीने में, कर्नाटक के चुनाव के समय इस कंपनी ने 40 करोड़ रुपए के बांड और खरीदे। इस कंपनी को ठेका इसके बावजूद दिया गया था कि इससे चंद रोज पहले ही, जोशी मठ के भूधंसाव का प्रकरण सामने आया था, जिसके लिए इसी कंपनी से जुड़ी विष्णुगाड़ परियोजना को जिम्मेदार माना गया था। दरअसल, रमेश के भाजपा तक पहुंचने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। 2014 और 2018 में रमेश को दो बार, तेलुगू देशम पार्टी ने राज्यसभा में भेजा था। लेकिन, 2019 में वह भाजपा में आ गए, जिसका सीधा संबंध 2018 में ईडी और आयकर विभाग द्वारा उनके खिलाफ मारे गए छापों से माना जाता है। तेलुगू देशम् के संरक्षण में रमेश, चंद करोड़ के सरकारी उप-ठेकेदार से, हजारों करोड़ के कारोबारी बन गए, जिसके संबंध में वाईआरसीपी के नेताओं ने अदालत में शिकायत भी की थी। तेलुगू देशम् के भाजपा से अलग होने के बाद, ईडी-आयकर के सहारे भाजपा ने उसका अपहरण कर लिया और उसके बाद से धंधा लो और चंदा दो का रिश्ता आगे बढ़ाया जा रहा है।ऐसे तमाम घपलों-घोटालों के उजागर होने के बावजूद, अगर मोदी के परिवार को इसका भरोसा है कि इससे उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा, तो इसलिए नहीं कि उन्हें लगता है कि ये मुद्दे छोटे हैं, बल्कि उन्हें भरोसा है कि कारपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ की ताकत, हर तूफान में से उनकी नैया पार करा देगी। कारपोरेटों का सहारा, बांड के घपले के उजागर होने के बावजूद अडिग बना हुआ है, जैसा कि शीर्ष कंपनियों के सीईओ कह रहे हैं। और सांप्रदायिक तुरुप के तौर पर, राम मंदिर के बाद अब, नियम बनाए जाने के बहाने सीएए को, चुनाव से ठीक पहले आगे किया जा चुका है। लेकिन, जब 2004 में ‘इंडिया शाइनिंग’ का ‘भरोसा’ काम नहीं आया, तो उसके बीस साल बाद, 2024 का यह खुल्लमखुल्ला सनक भरा ‘भरोसा’ कैसे काम कर जाएगा!*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*